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इंसान की फितरत-हिन्दी कविताएँ

कभी उनके पाँव
तन्हाई की ओर तरफ चले जाते हैं,
मगर फिर भी भीड़ के लोगों के साथ गुजरे पल
उनको वहाँ भी सताते हैं,
कुछ लोग बैचेनी में जीने के
इतने आदी होते कि
अकेले में कमल और गुलाब के फूल भी
मुस्कराहट नहीं दे पाते हैं।
———-
जहां जाती भीड़
कभी लोग वहीं जाते हैं,
दरअसल अपनी सोची राह पर
चलने से सभी घबड़ाते हैं।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

देश की बढ़ती अमीरी बन रही है बोरियत का कारण-हिन्दी लेख

       जापान में भूकंप के बाद समंदर अपनी मर्यादा छोड़कर सुनामी की लहरें ले आया जिससे वहां भारी तबाही हुई है। निश्चित रूप से यह खबर लोगों के लिये डरावनी है। इधर भारत में यह लग रहा है कि जापान की सुनामी पर समाचार और बहस प्रसारण में भारतीय चैनलों के लिये विज्ञापनों की सुनामी आ गयी। ऐसे खास अवसरों ं टीवी चैनल के दर्शक कुछ विस्तार से सुनना और जानना चाहते हैं और यह बात देश के प्रचार प्रबंधकों को पता है और वह पर्दे के सामने चिपके रहेंगे इसलिये उनके सामने विज्ञापन दिखाकर अपने प्रायोजकों को खुश करते हैं। मुश्किल यह है कि उनके पास प्रबंध कौशल केवल अपने विज्ञापनदाताओं करे खुश करने तक ही सीमित है कार्यक्रम के निर्माण और प्रस्तुति में नज़र नहीं आती। उनको समाचार और बहसों के बीच केवल अपने विज्ञापनों की फिक्र रहती है।
         कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विज्ञापनों की वजह से इतने सारे समाचार चैनल चल रहे हैं और उनका लक्ष्य विज्ञापन प्रसारित करना है और समाचार और बहस तो उनके लिये फालतु का विषय है। जो नये चैनल आ रहे हैं वह भी इसी उद्देश्य की पूर्ति में लग जाते हैं इसलिये वह पुराने चैनलों को परास्त नहीं कर पा रहे। सच बात तो यह है कि इन प्रबंधकों के पास पैसा कमाने के ढेर सारे तरीके होंगे पर प्रबंध कौशल नाम का नहीं है। प्रबंध कौशल से आशय है कि अपने व्यवसाय से संबंधित हर व्यक्ति को खुश करना और कम से कम भारतीय समाचार टीवी चैनलों के दर्शक उनसे खुश नहीं है। समाचारों और बहसों के बीच जिस तरह विज्ञापन जिस तरह दिखाये जा रहे हैं उससे तो यह बात साफ लगती है कि दर्शकों की परवाह उनको नहीं है। एक मिनट का समाचार पांच मिनट का विज्ञापन। यह भी चल जाये पर बहस बीच में भी यही हाल। चार विद्वान जुटा लिये और आधे घंटे की उनकी बहस में पांच मिनट का भी वार्तालाप नहीं होता।
        कई बार तो यह हालत हो जाती है किसी विषय पर विद्वान अपनी एक मिनट की बात पांच मिनट के विज्ञापन के साथ दो बार पूरी करा करता है। ऐसा लगता है कि उधर जब सुनामी आ गयी तो भारत के टीवी चैनलों के प्रबंधक विज्ञापनों का प्रबंधन कर रहे होंगे क्योंकि उनको मालुम था कि उनके कर्मचारी विदेशी टीवी चैनलों की कतरनों से समाचार प्रसारित करने के साथ ही चार चार पांच लाईने बोलने वाले विद्वान भी जुटाकर कार्यक्रम ठीकठाक बना लेंगे। कौन हिन्दी दर्शक अंग्रेजी टीवी चैनल देखता है जो इस घटिया स्तर को समझ पायेगा।
     ऐसा लगता है कि विश्व पटल पर भारत जो कर्थित आर्थिक विकास कर रहा है वह यहां के आम लोगों के लिये महत्वहीन होता जा रहा है। भारत के आर्थिक ताकत होने पर यहां कौन यकीन कर सकता है जब यहां के आम आदमी की किसी को परवाह न हो। विकास कंपनियों के नाम पर शक्तिशाली लोगों के समूहों को रहा है। कलाकार, विद्वान, पूंजीपति, समाजसेवी और बाहुबली सभी जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और यही प्रसिद्ध चेहरे कहीं न कहीं  कंपनियों के पीछे रहनुमा क तरह खड़े हैं। इतनी सारी कपंनियां और उनके विज्ञापन बार बार देखकर मन उकता जाता है। वही क्रिकेट, फिल्म और टीवी धारावाहिकों में सक्रिय चेहरे सतत सामने आते हैं तो लगता है कि टीवी बंद रखना ही श्रेयस्कर है। देश की कथित अमीरी अब बोरियत का कारण बन रही है।
       जापान की सुनामी की चर्चा में कहीं  कुछ ऐसा सुनने को मिला जिसे याद रखने योग्य माना जाये। वहां भारी तबाही है। प्रकृति के प्रकोप से आई सुनामी के निशान मिट जायेंगे पर वहां जो परमाणु संयत्र पर विस्फोट हुआ है वह काफी चिंताजनक हैं। मर्यादा लांघकर आया समंदर लौट जायेगा पर मानवजनित उस परमाणु ऊर्जा से उपजा प्रकोप से निपटना आसान काम नहीं होगा। लोग बता रहे हैं कि जापान में आई सुनामी का भारत पर प्रभाव नहीं होगा पर अगर परमाणु संयंत्र से गैस का रिसाव हुआ तो वह समंदर के साथ ही विश्व की पूरी धरती पर विष घोल सकता है। समंदर में रेडिएशन घुल गया तो वह बरसात के माध्यम से कहां बरसेगा पता नहीं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इस रिसाव से कोई खतरा नहीं पर हमारे हिसाब से उनको अभी अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। हमारा मानना तो यह है कि इस तरह के प्रकोप इसलिये हो रहे हैं कि अमेरिका और चीन सहित अनेक देशों ने ज़मीन और समंदर में ढेर सारे विस्फोट किये हैं।
                    ऐसे में एशिया के सबसे संपन्न जापान पर आया संकट यही संदेश दे रहा है कि प्रकृति से अधिक मानव स्वयं के लिये अधिक खतरनाक है। समंदर तो आज नहीं तो कल वापस अपनी जगह जायेगा पर परमाणु संयत्र से आया संकट आसानी से पीछा नहीं छोड़ेगा। जापान के लोगों ने 1942 में अपने दो शहरों हिरोशिमा और नागासकी पर अमेरिका के परमाणु बम गिरते देखें हैं और वह इसे जानते हैं। बहरहाल उनके यहां आयी सुनामी भारत के टीवी चैनलों के लिये भी सुनामी लायी है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कार और बैलगाड़ी-हिन्दी शायरियां (kar and bailgadi-hindi shayriyan)

वह कभी विकास विकास
तो कभी शांति शांति का नारा लगाते हैं।
कौन समझाये उनको
बैलगाड़ी युग में लौटकर ही
शांति के साथ हम जी पायेंगे,
वरना कार के धूऐं से
अपनी सांसों के साथ इंसान भी उड जायेंगे,
दिखाते हैं क्रिकेट और फिल्मों के
नायकों के सपने,
जैसे भूल जाये ज़माना दर्द अपने,
नैतिकता का देते उपदेश
लोगों को
पैसे की अंधी दौड़ में भागने के लिये
भौंपू बजाकर उकसाते हैं।
—————–
हर इंसान में
इंसानियात होना जरूरी नहीं होती है,
चमड़ी भले एक जैसी हो
मगर सोच एक होना जरूरी नहीं होती है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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वह इंसानी बुत
आंख से देखते हुए भी
सभी को दिखते,
अपनी कलम से पद पाने की हसरत में
हाथ से अपील भी लिखते,
कान आगे बढ़ाकर आदमी की
शिकायत भरी आवाज भी सुनते,
चेहरे पर अपनी अदाओं से
गंभीरता की लकीरें भी बुनते
फिर चढ़ जाते हैं सीढ़ियां
बैठ जाते शिखर पर।

अगली बार नीचे आने तक
वह लाचार हो जाते,
हर हादसे के लिये
अपने मातहत को जिम्मेदार
और खुद को बेबस बताते
अपनी बेबसी यूं ही दिखाते हैं,
लोकतंत्र के यज्ञ में
सेवा का पाखंड
किस कदर है कि
ज़माने की हर परेशानी के हल का
दावा करने वाले
महलों में घुसते ही बनकर राजा
अनुचरों के हाथ, पांव, कान तथा नाक के घेरे में ही
अपना सिंहासन सजाते हैं,
कौम के सपने रह जाते हैं बिखर कर।
—————

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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

कुदरत का खेल-हिन्दी शायरी (kudrat ka khel-hindi shayari)

माना कि उनके घर के दरवाजे तंग हैं,
तो भी हम उसमें से हम निकल जाते,
मुश्किल यह है कि उनकी सोच भी
तंग दायरों में कैद है इसलिये वह हमको
कभी प्यार से नहीं बुलाते।
————-
कई बार बहुत लोगों पर यकीन किया हमने
पर हर बार धोखा खाते हैं,
फिर भी नहीं रुकता यह सिलसिला
कुदरत का खेल कौन समझा
धोखा देना एक आदत है इंसान की
बस, समय और चेहरा बदल जाते हैं।
————

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क्रिकेट का मिक्सर और सिक्सर-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (cricket world cup mixer and sixer-hindi satire poem)

प्रचार करते हुए क्रिकेट मैच में
दर्शक जुटाने के लिये
वह जमकर देशभक्ति के जज़्बात जगायें,
भले ही उनके खेल नायक
कभी कभी बॉल तो कभी रन
बेचकर
देश और अपना ईमान दांव लगायें।
सच कहते हैं कि
बाज़ार के सौदागर और उनके भौंपू
चाहे जहां ज़माने को भगायें।
————
क्रिकेट खेल है या मनोरंजन का मिक्सर है,
मैदान पर खिलाड़ी
बाहर के इशारों पर होता आउट
तो कभी लगाता सिक्सर है।
————
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शैतान मरता नहीं है-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (sahitan marta nahin hai-hindi satire poem)

हर बार लगा कि शैतान के ताबूत में
आखिरी कील ठोक दी गयी है,
फिर भी वह दुनियां में
अपनी हाजिरी रोज दर्ज कराता है,
मुश्किल यह है कि
इंसानों के दिल में ही उसका घर है
भले ही किसी को नज़र नहीं आता है।
———-
बार बार खबर आती है कि
शैतान मर गया है
मगर वह फिर नाम और वेश
बदलकर सामने आता है,
कमबख्त,
कई इंसान उसे पत्थर मारते मारते
मर गये
यह सोचकर कि
उन्होंने अपना फर्ज अदा किया
मगर जिंदा रहा वह उन्हीं के शरीर में
छोड़ गये वह उसे
शैतान दूसरे में चला जाता है।
————

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दौलत और हादसों का रिश्ता-हिन्दी शायरी (daulat aur hadson ka rishta-hind shayri)

लोग हादसों की खबर पढ़ते और सुनते हैं
लगातार देखते हुए उकता न जायें
इसलिये विज्ञापनों का बीच में होना जरूरी है।
सौदागारों का सामान बिके बाज़ार में
इसलिये उनका भी विज्ञापन होना जरूरी है।
आतंक और अपराधों की खबरों में
एकरसता न आये इसलिये
उनके अलग अलग रंग दिखाना जरूरी है।
आतंक और हादसों का
विज्ञापन से रिश्ता क्यों दिखता है,
कोई कलमकार
एक रंग का आतंक बेकसूर
दूसरे को बेकसूर क्यों लिखता है,
सच है बाज़ार के सौदागर
अब छा गये हैं पूरे संसार में,
उनके खरीद कुछ बुत बैठे हैं
लिखने के लिये पटकथाऐं बार में
कहीं उनके हफ्ते से चल रही बंदूकें
तो कहीं चंदे से अक्लमंद भर रहे संदूके,
इसलिये लगता है कि
दौलत और हादसों में कोई न कोई रिश्ता होना जरूरी है।

———–
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देशप्रेम और सयाने-हिन्दी व्यंग्य कविता (deshprem aur sayane-hindi vyangya poem)

नहीं जगा पाते अब देशप्रेम
फिल्मों के पुराने घिसे पिटे गाने,
हालत देश की देखकर
मन उदास हो जाता है,
स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस
उठते है मन ही मन ताने।
अपने आज़ाद होने के बारे में सुना
पर कभी नहीं हुआ अहसास,
जीवन संघर्ष में नहीं पाया किसी को पास,
आज़ादह और एकता के नारे
हमेशा सुनने को मिलते रहे,
पर अपनों से ही जंग में पिलते रहे,
अपने को हर पग पर गुलाम जैसा पाया,
अपने हाथ अपने मन से नहीं चलाया,
हमेशा रहे आज़ादी और स्वयं के तंत्र से अनजाने
सब उलझे हैं उलझनों में
जो सुलझे हैं,
वह भी लगे दौलत और शौहरत जुटाने की उधेड़बनों में,
देशप्रेम की बात करते हैं,
पर दिखाते नहीं वही कहलाते सयाने।
——–

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गरीब की खुशी पर रोते-हिन्दी व्यंग्य कविता (garib ki khushi par rote-hindi vyangya kavita)

अपनी खुशी पर हंसने की बजाय
दूसरे के सुख रोते
इसलिये इंसान कभी फरिश्ते नहीं होते।
मुखौटे लगा लेते हैं खूबसूरत लफ़्जों का
दरअसल काली नीयत लोग छिपा रहे होते।
दौलत के महल में बसने वाले
खुश दिखते हैं,

 मगर  गरीब की पल भर की खुशी पर वह भी रोते।
सोने के सिंहासन पर विराजमान
उसके छिन जाने के खौफ के साये में
जीते लोग
कभी किसी के वफादार नहीं होते।
———–

कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आदर्श की बातें-हिन्दी शायरी

गनीमत है इंसान के पांव
सिर्फ जमीन पर चलते हैं,
उस पर भी जिस टुकड़े पर जमें हैं
उसे अपना अपना कहकर
सभी के सीने तनते हैं,
हक के नाम पर हर कोई लड़ने को उतारू है।
अगर कुदरत ने पंख दिये होता तो
आकाश में खड़े होकर हाथों से
एक दूसरे पर आग बरसाते,
जली लाशों पर रोटी पकाते,
आदर्श की बातें जुबान से करते
मगर कोड़ियों में बिकने के लिये तैयार सभी बाजारू हैं।
——–

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असली और नकली जांबाज-हिन्दी शायरी

मैदान पर लड़ते कम
किनारे पर खड़े दिखाते दम
कागजी जांबाजो के करतब
कभी अंजाम पर नहीं पहुंचे
पर हर पल उनको अपनी आस्तीने
ऊपर करते हमने देखा है।
कीर्तिमान बहुत सुनते हैं उनके
पर कामयाबी के नाम पर खाली लेखा है।
———-
पत्र प्रारूप पर
हाशिए पर नाम लिखवाकर
वह इतराते हैं,
सच तो यह है कि
कारनामे देते अंजाम देते असली जांबाज
हाशिए पर छपे नाम प्रसिद्धि नहीं पाते हैं।
———-
उनको गलत फहमी है कि
किनारे पर चीखते हुए
तैराकों से अधिक नाम कमा लेंगे।
हाशिऐ पर खिताबों से जड़कर नाम
जमाने पर सिक्का जमा लेंगे।
शायद नहीं जानते कि
किनारे पल भर का सहारा है
असली जंग तो दरिया से लड़ते हैं जांबाज
लोगों की नज़रे लग रहती हैं उन पर
कागज के बीच में लिखा मजमून ही
पढ़ते हैं सभी
हाशिए के नाम बेजान बुत की तरह ही जड़े रहेंगे।
———

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छोटे और बड़े साहब-हिन्दी क्षणिकाएँ (boss culture-hindi comic poem)

 दिन भर अपने लिए साहब शब्द सुनकर

वह रोज फूल जाते हैं।

मगर उनके ऊपर भी साहब हैं

जिनकी झिड़की पर वह झूल जाते हैं।
——————–

नयी दुनियां में पुजने का रोग

सभी के सिर पर चढ़ा है।

कामयाबी का खिताब

नीचे से ऊपर जाता साहब की तरफ

नाकामी की लानत का आरोप

ऊपर से उतरकर नीचे खड़ा है,

भले ही सभी जगह साहब हैं

बच जाये दंड से, वही बड़ा है

——–

साहबी संस्कृति में डूबे लोग

आम आदमी का दर्द कब समझेंगे।

जब छोटे साहब से बड़े बनने की सीढ़ी

जिंदगी में पूरी तरह चढ़ लेंगे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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अंतर्जाल पर दूसरे की लोकप्रियता का लाभ उठाने के प्रयास-हिन्दी लेख

तीन वर्ष से जारी हमारी निजी ‘चिट्ठाचर्चा’ में पहली बार दो ऐसे शब्दों से सामना हुआ जिनके अर्थ और भाव से हम आज तक परिचित नहीं थे। वह हैं ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’। मुश्किल तो यही है कि भाई लोग अंग्रेजी हिज्जे नहीं लिखते जिससे उनका शुद्ध उच्चारण और हिन्दी अर्थ कहीं से पता करें। बहरहाल ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’ को दूसरे के नाम की लोकप्रियता का उपयोग अपने हित में भुनाने के प्रयास को कह सकते हैं। ‘साइबर स्कवैटिंग’ का मतलब यह है कि किसी लोकप्रिय नाम या संस्था के आधार पर अपनी वेबसाईट या ब्लाग का पता और नाम तय करना। ‘टाईपो स्क्वैटिंग’ का मतलब है कि किसी लोकप्रिय नाम या संस्था के नाम से मिलता जुलता नाम रखना ताकि लोग भ्रमित होकर वहां आयें।
अंतर्जाल पर जब हमने लिखना शुरु किया तब ऐसा प्रयास किया था कि जिससे दूसरे मशहूर नामों का लाभ हमें मिले। तब इस बात का आभास नहीं था कि जिनको सामान्य जीवन को हम गलत समझते आये हैं वही हम करने जा रहे हैं। वैसे इस विषय पर हिन्दी ब्लाग जगत में विवाद भी चल रहा है पर इस पाठ का उससे कोई लेना देना नहीं है क्योंकि यह विषय अत्यंत व्यापक है और इस बारे में नये लेखकों के साथ आम लोगों तक भी यह संदेश पहुंचाना जरूरी है कि इस तरह लोकप्रियता का उपयोग विवाद पैदा कर सकता है।
आपने देखा होगा कि अनेक बार बाजारों में ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं जहां एक ही वस्तु की दुकाने होती हैं। जिनमें एक नाम ‘अमुक’ होता है तो दूसरा ‘न्यू अमुक’ कर लिखता है। अनेक शहरों में चाट, गजक, नमकीन तथा मिठाई की प्रसिद्ध दुकानें होती हैं और उसका उपयोग अन्य लोग ‘न्यू’ या अन्य शब्द जोड़कर करते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि किसी शहर की कोई दुकान अपनी चीज के कारण प्रसिद्ध है तो ठीक उसी नाम से दूसरे शहर में खुल जाती है। अनेक बार उपभोक्ता वहां जाते भी हैं और पूछने पर मालिक लोग उसी की शाखा होने का दावा करते हैं। अब यह अलग बात है कि दूसरे शहर जाने पर जब उस मशहूर दुकान वाले से पूछा जाता है तो इसका खंडन हो जाता है। कोटा की प्याज कचौड़ी मशहूर है और उसे बनाने वाले की दूसरे शहर में कोई दुकान नहीं है पर दूसरे शहरों के कुछ दुकानदार ऐसा दावा करते हैं।
दूसरे की लोकप्रियता भुनाने का यह प्रयास कोई नया नहीं है पर सचाई यह है कि यह कानूनी या नैतिक रूप से गलत न भी हो पर इससे स्वयं की छबि प्रभावित जरूर होती है-कई लोग तो नकलची तक कह देते हैं। ऐसा करते समय अगर हम यह न सोचें कि दूसरा क्या कहेगा पर यह तो देखें कि हम ऐसा करते हुए दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं? ऐसे में हमारी मेहनत ईमानदार होती है पर फिर भी उसमें नेकनीयती की कमी से हमारी छबि प्रभावित होती है।
जब हम अंतर्जाल पर लोकप्रिय नामों से जुड़ने का प्रयास कर रहे थे तब अपनी गलती का पता नहीं था, और एक वर्ष पहले तक ही यह आभासा हो पाया कि यहां ब्लाग के पते और नाम से अधिक ताकतवर तो उसमें लिखी गयी सामग्री है। पहले कुछ ब्लागों में नाम उपयोग किये तो कहीं पते भी लोकप्रिय नामों से लिये गये। बाद में उनमें से अनेक हटा लिये। इस लेखक के ब्लाग स्पाट और वर्डप्रेस पर बीस ब्लाग हैं जिनमें अब एक ब्लाग ऐसा बचा है भले ही वह एक लोकप्रिय नाम से मिलता है पर उसकी लोकप्रियता अब भी कम है। प्रसंगवश इसी लेखक ने अपने दो छद्म ब्लाग भी बनाये थे पर यह संयोग ही था कि वह उत्तरप्रदेश के एक प्रसिद्ध लेखक से उसके नाम और पते मेल खा गये। दरअसल वह नाम भी ऐसा ही था जिसे लेकर इस लेखक की नानी उसे बचपन में बुलाती थी। उन पर दो वर्ष से कुछ नहीं लिखा पर आठ दस पाठक उन पर आ ही जाते हैं-उन ब्लाग को लेकर मन में कोई गलती अनुभव भी नहीं होती। अलबत्ता अब तो यह सोच रहे हैं कि उस अपने एक ब्लाग स्पाट के ब्लाग का पता भी बदल दें क्योंकि आगे चलकर लोग यही कहेंगे कि देखो यह दूसरे की लोकप्रियता भुना रहा है।
मुख्य बात यह है कि अंतर्जाल पर अगर तात्कालिक उद्देश्य पूरे करना हों तो यह ठीक हो सकता है पर कालांतर में इसका कोई लाभ नहीं होता। जिनको लंबे समय तक टिकना है उन्हें तो इससे दूर ही रहना चाहिए। अगर आपने वेबसाईट या ब्लाग का नाम किसी दूसरे की लोकप्रियता को बनाया तो वह आपकी छबि को भी प्रभावित कर सकता है। दूसरी बात यह है कि हम जहां अपने शब्द लिखते हैं उनकी शक्ति का समझना जरूरी है। उस क्षेत्र को एच.टी.एम.एल कहा जाता है। हम जो शीर्षक, सामग्री या लेबल टैग लगाते हैं वह हमारे ब्लाग को सच इंजिनों में ले जाते हैं-एक तरह से शब्द ही चालक हैं अगर आपको किसी की लोकप्रियता का लाभ उठाना है तो बस अपने शीर्षक में ही उसका उपयोग करें कि दूसरे को यह न लगे कि आपने उसके नाम का उपयोग किया है। अगर वह आपका मित्र या जानपहचान वाला हो तो उसकी प्रशंसा में एक दो पाठ लिख दें-उसका नाम शीर्षक के साथ दें। याद रहे यहां किसी की निंदा या आलोचना करते हुए नाम लेने से बचें। ब्लाग का पता या नाम अगर किसी लोकप्रिय नाम पर लिखेंगे तो उससे अपना छबि को स्वतंत्र रूप से नहीं स्थापित कर पायेंगे। फिर उससे आप स्वयं ही संकीर्ण दायरे में यह सोचकर सिमट जायेंगे कि आप तो वैसे ही हिट हैं और नवीन प्रयोग और रचना नहीं कर पायेंगे।
आगरा का पेठा मशहूर है तो भारत की हिन्दी-अभिप्राय है कि सार्वज्निक महत्व के नामों को लेकर झगड़ा नहीं होता। इतना तो चल जाता है पर निजी लोकप्रिय नामों के उपयोग को लेकर अनेक जगह झगड़ा भी होता है। दूसरी बात यह भी है कि व्यक्ति की निजी लोकप्रियता को तभी भुनाने का प्रयास करें जब आपके पास हूबहू उस नाम के प्रयोग का पुख्ता आधार हो। अगर राजनीति, साहित्य, कला, फिल्म या अन्य किसी क्षेत्र में कोई प्रसिद्ध नाम है और उसका आप इस्तेमाल करते हैं तो वह कानून का मामला बन सकता है। अभी अंतर्जाल पर ऐसा कोई कानून है कि पता नहीं पर इसका आशय यह नहीं है कि चाहे किसी का नाम भी उपयेाग किया जा सकता है। ब्लाग या वेबसाईट का पता भले ही आसानी से मिल जाये पर किसी मामले पर अदालतें संज्ञान ले सकती हैं। एक बात याद रखिये संस्थान पंजीकृत होते हैं पर निजी लोकप्रियता नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी भी लोकप्रिय व्यक्ति का नाम कोई उपयोग करने लगे-लोगों की निजी लोकप्रियता की रक्षा न्याय के दायरे में है भले ही उसके लिये कोई कानून न बना हो। संभवतः अदालतों में आत्मुग्धता का तर्क नहीं चले कि ‘यह तो हमें मिल गया, हमने हड़पा नहीं है’। एक प्रसिद्ध नेता के नाम पर बनी वेबसाईट को गलत ठहराया जा चुका है-ऐसा उसी लेख में पढ़ने को मिला जिसमें ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’ मिले।
कहने का अभिप्राय यह है कि जितना हो सके अपनी लोकप्रियता अपने पाठों से जुटाने का प्रयास करें। अपने ब्लाग और वेबसाईटों के पतों में लोकप्रिय नामों का उपयोग करने से क्या लाभ? यह काम तो एक पाठ से किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि अधिक से अधिक सकारात्मक लेखन करें तो स्वतः ही अंतर्जाल पर आपकी लोकप्रियता बढ़ेगी। दुकानों का बोर्ड तो लोग इसलिये बनाते हैं ताकि ग्राहक उसे देखकर आयें। इस प्रयास में होता यह है कि अच्छी चीज बनायें या बेचें पर फिर भी उनकी छबि नकलची की ही होती है। लोग कमाने के लिये झेलते हैं क्योंकि वह रोज बोर्ड बदल नहीं सकते जबकि ब्लाग या वेबसाईट पर तो एक नहीं हजारों बोर्ड शीर्षक बनाकर लगाये जा सकते हैं। इसलिये यहां दूसरे की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास कर अपनी छबि न बिगाड़े तो ही अच्छा! कानून यह नैतिकता के प्रश्न से बड़ी बात यह है कि हम अपनी छबि वैसे ही बनायें जैसी कि दूसरों से अपेक्षा करते हैं।

संदर्भ के लिये यह दिलचस्प पाठ अवश्य पढ़ें।
http://nilofer73.blogspot.com/2010/02/blog-post.html

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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जब फैशन तनाव बने-हिन्दी आलेख (fashan is tension-hindi article)

अखबार में पढ़ने को मिला कि ब्रिटेन में महिलायें क्रिसमस पर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनने के लिये इंजेक्शन लगवा रही हैं। उससे छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता-भारतीय महिलायें इस बात पर ध्यान दें कि अंग्रेजी दवाओं के कुछ बुरे प्रभाव ( साईड इफेक्ट्स) भी होते हैं। हम तो समझते थे कि केवल भारत की औरतें ही ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनकर ही दर्द झेलती हैं अब पता लगा कि यह फैशन भी वहीं से आयातित है जहां से देश की शिक्षा पद्धति आई है।

एक बार हम एक अन्य दंपत्ति के साथ एक शादी में गये।  उस समय हमारे पास स्कूटर नहीं था सो टैम्पो से गये।  कुछ देर पैदल चलना पड़ा। वह दंपति भी चल तो रहे थे पर महिला बहुत परेशान हो रही थी।  उसने हाई हील की चप्पल पहन रखी थी।

बार बार कहती कि ‘इतनी दूर है। रात का समय आटो वाला मिल जाता तो अच्छा रहता। मैं तो थक रही हूं।’

हमारी श्रीमती जी भी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) पहने थी पर वह अधिक ऊंची नहीं थी।  उन्होंने उस महिला से कहा कि-‘यह बहुत ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाले जूते या चप्पल पहनने पर होता है। इसलिये मैं कम ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली पहनती हूं।’

वह बोली-‘नहीं, ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से से कोई फर्क नहीं पड़ता।’

बहरहाल उस शादी के दौरान ही उनकी चप्पल की एड़ी निकल गयी।  अब यह तो ऐसा संकट आ गया जिसका निदान नहीं था।  अगर चप्पल सामान्य ढंग के होती तो घसीटकर चलाई जा सकती थी पर यह तो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली थी। अब वह उसके पति महाशय हमसे बोले-‘यार, जल्दी चलो। अब तो टैम्पो तक आटो से चलना पड़ेगा।’

हमने हामी भर दी। संयोगवश एक दिन हम एक दिन जूते की दुकान पर गये वहां से वहां उसने हमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते दिखाये पर हमने मना कर दिया क्योंकि हमें स्वयं भी यह आभास हो गया था कि जब ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते टूटते हैं तो क्या हाल होता है? उनको देखकर ही हमें अपनी ऐड़ियों में दर्द होता लगा।

हमारे रिश्ते की एक शिक्षा जगत से जुड़ी महिला हैं जो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूतों की बहुत आलोचक हैं।  अनेक बार शादी विवाह में जब वह किसी महिला ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहने देखती हैं तो कहती हैं कि -‘तारीफ करना चाहिये इन महिलाओं की इतनी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनकर चलती हैं। हमें तो बहुत दर्द होता है। इनके लिये भी कोई पुरस्कार होना चाहिए।’

एक दिन ऐसे ही वार्तालाप में अन्य बुजुर्ग महिला ने उनसे कहा कि-‘ अरे भई, आज समय बदल गया है।  हम तो पैदल घूमते थे पर आजकल की लड़कियों को तो मोटर साइकिल और कार में ही घूमना पड़ता है इसलिये ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनने का दर्द पता ही नहीं लगता। जो बहुत पैदल घूमेंगी वह कभी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की  चप्पल नहीं पहन सकती।’

उनकी यह बात कुछ जमी। ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते का फैशन परिवहन के आधुनिक साधनों की वजह से बढ़ रहा है। जो पैदल अधिक चलते हैं उनके िलये यह संभव नहीं है कि ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहने।

वैसे भी हमारे देश में जो सड़कों के हाल देखने, सुनने और पड़ने को मिलते हैं उसमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल और जूता पहनकर क्या चला जा सकता है? अरे, सामान्य ऐड़ी वाली चप्पलों से चलना मुश्किल होता है तो फिर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से खतरा ही बढ़ेगा। बहरहाल फैशन तो फैशन है उस पर हमारा देश के लोग चलने का आदी है। चाहे भले ही कितनी भी तकलीफ हो। हमासरे देश का आदमी  अपने हिसाब से फैशन में बदलाव करेगा पर उसका अनुसरण करने से नहीं चूकेगा।

दहेज हमारे यहां फैशन है-कुछ लोग इसे संस्कार भी मान सकते हैं।  आज से सौ बरस पहले पता नहीं दहेज में कौनसी शय दी जाती होगी- पीतल की थाली, मिट्टी का मटका, एक खाट, रजाई हाथ से झलने वाला पंख और धोती वगैरह ही न! उसके बाद क्या फैशन आया-बुनाई वाला पलंग, कपड़े सिलने की मशीन और स्टील के बर्तन वगैरह। कहीं साइकिल भी रही होगी पर हमारी नजर में नहीं आयी। अब जाकर कहीं भी देखिये-वाशिंग मशीन, टीवी, पंखा,कूलर,फोम के गद्दे,फ्रिज और मोटर साइकिल या कार अवश्य दहेज के सामान में सजी मिलती है। कहने का मतलब है कि घर का रूप बदल गया। शयें बदल गयी पर दहेज का फैशन नहीं गया। अरे, वह तो रीति है न! उसे नहीं बदलेंगे। जहां माल मिलने का मामला हो वहां अपने देश का आदमी संस्कार और धर्म की बात बहुत जल्दी करने लगता है।

हमारे एक बुजुर्ग थे जिनका चार वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया। उनकी पोती की शादी की बात कहीं चल रही थी। मध्यस्थ ने उससे कहा कि ‘लड़के के बाप ने  दहेज में कार मांगी है।’

वह बुजुर्ग एकदम भड़क उठे-‘अरे, क्या उसके बाप को भी दहेज में कार मिली थी? जो अपने लड़के की शादी में मांग रहा है!

बेटे ने बाप को  समझाकर शांत किया। आखिर में वह कार देनी ही पड़ी। कहने का तात्पर्य यह है कि बाप दादों के संस्कार पर हमारा समाज इतराता बहुत है पर फैशन की आड़ लेने में भी नहीं चूकता।  नतीजा यह है कि सारे कर्मकांड ही व्यापार हो गये हैं। शादी विवाह में जाने पर ऐसा लगता है कि जैसे खाली औपचारिकता निभाने जा रहे हैं।

बहरहाल अभी तक भारतीय महिलाओं को यह पता नहीं था कि कोई इंजेक्शन लगने पर छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता वरना उसका भी फैशन यहां अब तक शुरु हो गया होता। अब जब अखबारों में छप गया है तो यह आगे फैशन आयेगा।  जब लोगों ने फैशन के नाम पर अपने शादी जैसे पवित्र संस्कारों को महत्व कम किया है तो वह अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ से भी बाज नहीं आयेंगे।  औरते क्या आदमी भी यही इंजेक्शन लगवाकर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनेंगे। कभी कभी तो लगता है कि यह देश धर्म से अधिक फैशन पर चलता है।


कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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