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नववर्ष विक्रमी संवत् 2068 पर अध्यात्मिक चिंतन (new vikram sanvat, A adhyatmik thought)
विक्रम संवतः पर आधुनिक बाज़ार और उनके प्रचार माध्यम मॉल, टॉकीज, बार, तथा होटलों के लिये युवा पीढ़ी को प्रेरित नहीं कर सकते। उनके अंदर काम तथा व्यसन की भावनाओं को प्रज्जवलित नहीं कर सकते। क्योंकि भारतीय संस्कृति और धर्म मनुष्य को अंतर्मन में जाकर अपना ही आत्ममंथन करने के लिये प्रेंरित करते हैं जबकि विदेशी संस्कृति और धर्म मनुष्य को बाहर जाकर जीवन से जूझने के लिये प्रेरित करते हैं जिससे अंततः बाज़ार और धर्म के ठेकेदार उसे बंधक बना लेते हैं। विदेशी संस्कृति और धर्म में आज तक अध्यात्म का महत्व नहीं समझा गया। देह में मौजूद आत्मा तत्व को परखने का प्रयास ही नहीं किया गया। तत्वज्ञान तो उनमें हो ही नहीं सकता क्योंकि वह मनुष्य देह तथा परमात्मा के बीच स्थित उस आत्मा को स्वीकार ही नहीं करते जिसके साथ योग के माध्यम से संपर्क किया जाये तो यही आत्मा परमात्मा से संयोग कर मनुष्य देह को अत्यंत शक्तिशाली बना देता है। सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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कुल बीस ब्लाग/पत्रिका में 12 अन्य तीन अंक लिये हुए हैं। पांच ब्लाग का चार अंक में होना शायद इतना अधिक सफल होना न लगे-क्योंकि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने को लेकर अनेक भ्रम है-मगर अपने लेखकीय कर्म से एक बात अनुभव कर ली है कि अंग्रेजी पर बहुत कुछ समाग्री इस अंतर्जाल पर है पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ब्लाग या वेबसाईटें हिन्दी से अधिक पाठक जुटाती हैं। ब्लाग/वेबसाईटें की रैंक बताने वाली एक वेबसाईट पर इस लेखक का एक ब्लाग साहित्य श्रेणी में है जो कल चतुर्थ वरीयता तक पहुंचा था और उसके पीछे 106 ब्लागों में बहुत सारे अंग्रेजी के थे। हिन्दी की एक व्यवसायिक वेबसाईट भी उसके बहुत पीछे थी। इस रैंकिंग वाली साईट पर अपने ब्लाग पंजीकृत करने पड़ते हैं इसलिये जो पंजीकृत नहीं है उनसे मुकाबला करना ठीक नहीं हैं पर इतना जरूर है कि हिन्दी के ब्लाग को अंग्रेजी से बढ़त नहीं मिलेगी यह सोचना भी गलत है-इससे यह बात समझ में आती है। इसी वेबसाईट पर अन्य श्रेणियों में भी इस लेखक के ब्लाग पंजीकृत हैं और उन्होंने अंग्रेजी ब्लागों पर बढ़त बनायी है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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गलतियाँ, अपराध और लिंगभेद-आलेख
भारतीय समाज की भी बड़ी अजीब हालत है। अच्छाई या बुराई में भी वह जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र के भेद करने से बाज नहीं आता। अनेक तरह के वाद विवादों में तमाम तरह के भेद ढूंढते बुद्धिजीवियों ने शायद उन दो घटनाओं को मिलाने का शायद ही प्रयास किया हो जो सदियों पुराने लिंग भेद का एक ऐसा उदाहरण जिससे पता लगता है कि गल्तियों और अपराधों में भी किस तरह हमारे यहां भेद चलता है।
दोनों किस्से टीवी पर ही देखने को मिले थे। एक किस्सा यह था कि कहीं किसी सुनसान सड़क से पुलिस वाले अपनी गाड़ी में बैठकर निकल रहे थे। रास्ते में एक स्थान पर एक मंदिर पड़ा। जब वह उसके पास से गुजरे तो उन्हें अंदर से एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। वह जगह सुनसान थी और इस तरह आवाज सुनाई देना उनको संदेहास्पद लगा। तब वह पूरी टीम अंदर गयी। वहां उनको एक बच्चा अच्छी चादर में लिपटा मिला। उन्होंने उसको उठाया और इधर उधर देखा पर कोई नहीं दिखाई दिया। पुलिस वालों को यह समझते देर नहीं लगी कि उस बच्चे को कोई छोड़ गया है।
अब पुलिस वालों के लिये समस्या यह थी कि उस बच्चे की असली मां को ढूंढे पर उससे पहले बच्चे की सुरक्षा करना जरूरी था। वह उसको अस्पताल ले गये। डाक्टरों ने बताया कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है। मगर पुलिस वालों को समस्या यही खत्म होने वाली नहीं थी। वह सब पुरुष थे और उस बच्चे के लिये उनको एक अस्थाई मां चाहिये थी। वह भी ढूंढ निकाली और उसे बच्चा संभालने के लिये दिया और फिर शुरु हुआ उनके अन्वेषण का दौर। वह उसकी असली मां को ढूंढना चाहते थे। तय बात है कि इसके लिये उनको उन हालतों पर निगाह डालना जरूरी था जिसमें वह बच्चा मिला। ऐसी स्थिति में पुलिस वाले भी आम इंसानों जैसा सोचें तो कोई आश्चर्य नहीं होता। उन्होंने बच्चा उठाया था कोई अपराधी नहीं पकड़ा था जिससे पूछकर पता लगाते।
पुलिस का समाज से केवल इतना ही सरोकार नहीं होता कि वह इसका हिस्सा है बल्कि उसके लिये उनको समाज के आम इंसान आदतों, प्रवृत्तियों और ख्यालों को भी देखना होता है।
एक पुलिस वाले का बयान हृदयस्पर्शी लगा। उसने कहा कि -‘‘बच्चा किसी अच्छे घर का है शायद अविवाहित माता के गर्भ से पैदा हुआ है इसलिये उसे छोड़ा गया है। वरना लड़का कोई भला ऐसे कैसे छोड़ सकता है? लड़के को बहुत अच्छी चादर में रखा गया है। उसे अच्छे कपड़े पहनाये गये हैं।’;
एक जिम्मेदार पुलिस वाले के लिये यह संभव नहीं है कि वह कोई ऐसी बात कैमरे के सामने कहे जो लोगों को नागवार गुजरे। उनकी आंखों से बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतायें साफतौर से दिखाई दे रही थी। ऐसी स्थिति में पुलिस वालों ने बच्चे की सहायता करते हुए ऐसे व्यक्तिगत प्रयास भी किये होंगे जो उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं होंगे। उनकी बातों से बच्चे के प्रति प्रेम साफ झलक रहा था।
पुलिस अधिकारी यह शब्द हमें मर्मस्पर्शी लगे ‘वरना लड़का कौन ऐसे छोड़ता है’। ऐसे लगा कि इन शब्दों के पीछे पूरे समाज का जो अंतद्वद्व हैं वह झलक रहा हो जिसे वह व्यक्त करना चाहते हों।
लगभग कुछ ही देर बाद एक ऐसी ही घटना दूसरे चैनल पर देखने को मिली। वहां एक नवजात लड़की का शव एक कूड़ेदान में मिला। वहां भी पुलिस वालों का कहना था कि ‘संभव है यह लड़की अविवाहित माता के गर्भ से उत्पन्न हुई हो या फिर लड़की होने के कारण उसे यहां फैंक दिया हो।’
इन दोनों घटनाओं के पुलिस क्या कर रही है या क्या करेगी-यह उनकी अपनी जिम्मेदारी है। इसके बारे में अधिक पढ़ने या सुनने को नहीं मिला। जो लड़का जीवित मिला उसके लिये वह आगे भी ठीक रहे इसके निंरतर सक्रिय रहेंगे ऐसा उनकी बातों से लग रहा था। यहां हम इन दोनों घटनाओं में समाज में व्याप्त लिंग भेद की धारणा पर दृष्टिपात करें तो तो सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि लोग गल्तियां करने पर भी लिंग भेद करते हैं।
एक मां ने अपना लड़का इसलिये ही मंदिर में छोड़ा कि वह उसके काम नहीं आया तो किसी दूसरे के काम आ जायेगा-मंदिर है तो वहां कोई न कोई धर्मप्रिय आयेगा और उस लड़के को बचा लेगा। क्या उसने अच्छी चादर में लपेटकर इसलिये मंदिर में छोड़ा कि जो उसे उठाये उसके सामने बच्चे की रक्षा के लिये तात्कालिक रूप से ढकने के लिये कपड़े की आवश्यकता न हो। क्या उसके मन में यह ख्याल था कि आखिर लड़का है किसी के काम तो आयेगा? कोई तो लड़का पाकर खुश होगा? कोई तो लड़का मिलने पर जश्न मनायेगा?
लड़की को फैंकने वाले परिवारजनों ने क्या यह सोचकर कूड़ेदान में फैंका कि लड़की भला किस काम की? हम अपना त्रास दूसरे पर क्यों डालकर अपने ऊपर पाप लें? क्या उन्होंने सोचा कि लड़की उनके लिये संकट है इसलिये उसे ऐसी जगह फैंके जहां वह बचे ही नहीं ताकि कोई उसकी मां को ढूंढने का प्रयास न करे।
कभी कभी तो लगता है कि बच्चों को गोद लेने और देने की लोगों को व्यक्तिगत आधार पर छूट देना चाहिये। जिनको बच्चा न हो उन्हें ऐसे बच्चों को गोद लेने की छूट देना चाहिये जिनसे उनके माता या पिता छुटकारा पाना चाहते हैं। दरअसल निःसंतान दंपत्ति बच्चे गोद लेना चाहते हैं पर इसके लिये जो संस्थान और कानून है उनसे जूझना भी उनको एक समस्या लगती है। ऐसे में अगर कोई उनको अपना बच्चा देना चाहे तो उनके लिये किसी प्रकार की बाध्यता नहीं होना चाहिये। कहीं अगर किसी नागरिक को बच्चा पड़ा हुआ मिल जाये तो उसे कानून के सहारे वह बच्चा रखने की अनुमति मिलना चाहिये न कि उससे बच्चा लेकर कोई अन्य कार्रवाई हो। पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि बिना विवाह के बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति तो रोकी नहीं जा सकती पर ऐसे बच्चों को निसंतान दंपत्ति को लेने के लिये अधिक कष्टदायी नियम नहीं होना चाहिये। इन दोनों घटनाओं ने लेखक को ऐसी बातें सोचने के लिये मजबूर कर दिया जो आमतौर से लोग सोचते हैं पर कहते नहीं। बहरहाल लड़के और लड़की के परिवारजनों ने लिंग भेद के आधार पर ऐसा किया या परिस्थितियों वश-यह कहना कठिन है पर समाज में जो धारणायें व्याप्त हैं उससे इन घटनाओं में देखने का प्रयास हो सकता है क्योंकि यह कोई अच्छी बात नहीं है कि कोई अपने बच्चे इस तरह पैदा कर छोड़े। खासतौर से जब लड़का मंदिर में और लड़की कुड़ेदान में छोड़ी जायेगी तब इस तरह की बातें भी उठ सकती हैं।
पश्चिमी चकाचैंध ने इस देश की आंखों को चमत्कृत तो किया है पर दिमाग के विचारों की संकीर्णता से मुक्त नहीं किया। पश्चिम में अनेक लड़कियां विवाह पूर्व गर्भ धारण कर लेती हैं पर अपना गर्भ गिरा देती हैं या फिर बच्चा पैदा करती हैं। उनका समाज उन पर कोई आक्षेप नहीं करता इसलिये ही वहां इस तरह बच्चों को फैंकने की घटनायें होने के समाचार कभी भी सुनने को नहीं मिलते।
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दक्षिण एशिया के साहित्यकार आतंक पर सच लिख भी कहां पाये-आलेख
अभी हाल ही में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यकार सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें भारत, पाकिस्तान,श्रीलंका,बंग्लादेश तथा अन्य सदस्य देशों के नामचीन साहित्यकार शामिल हुए। जैसा कि संभावना थी कि इस इलाके में व्याप्त आतंकवाद भी इसमें चर्चा का विषय बना। जब इलाके में आतंकवाद का बोलबाला है तो यह स्वाभाविक भी है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्यकार इसी दर्पण की आंख की तरह देखने वाला होता है। इन साहित्यकारों ने आतंकवाद की निंदा की है और अपने देश के हिसाब से ही अपने विचार व्यक्त किये। पाकिस्तान के एक साहित्यकार ने बंग्लादेश में हाल ही में हुए विद्रोह में अपने देश का हाथ होने के आरोप का खंडन किया। बात यहीं पर ही अटक जाती है कि साहित्यकारों को क्या उसी नजरिये पर चलना चाहिये जिस पर उनका समाज या देश चल रहा है।
पहले तो यहां साहित्यकार और पत्रकार का भेद स्पष्ट करना जरूरी है। पत्रकार जो देखता है वही दिखाता और लिखता है पर साहित्यकार का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये। पत्रकार कल्पना नहीं करता और न उसे करना चाहिये पर साहित्यकार को किसी घटना में तर्क के आधार पर कल्पना और अनुमान करने की शक्ति होना चाहिये। अपने समाज और देश के प्रति साहित्यकार की प्रतिबद्धता होना जरूरी है पर उसे अंधभक्ति से दूर रहना चाहिये। दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अपने देश में जो इनाम मिलते हैं वही उनकी प्रतिष्ठा का आधार बनते हैं पर सच तो यह है कि पूरे क्षे.त्र की हालत एक जैसी है और सभी जगह यह पुरस्कार लेखकों के संबंधों पर अधिक दिये जाते हैं और कई तो ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कार पा जाते हैं जिनको समाज में ही अहमियत नहीं दी जाती है। बहरहाल दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अब इस बात का भी मंथन करना चाहिये कि क्या वह वास्तव में ही समाज और देश के लिये महत्ती भूमिका निभा रहे है? दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर उससे सामाजिक सरोकार कितने जुड़े हैं यह भी देखने की बात है।
हम दक्षिण एशिया के साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद पर लिखी गयी सामग्रियों पर ही विचार करें तो लगेगा कि वह यथार्थ से परे हैं। लेखक को कल्पना तो करना चाहिये पर उससे यथार्थ का बोध होता हो न कि वह झूठ लगने लगे। हमने केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही पढ़ा है। सभी को पढ़ना संभव नहीं है पर पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर इस संबंध में पढ़ते है तो लगता है सभी साहित्यकार एक जैसे ही है। हो सकता है कि कुछ अपवाद हों पर उनकी रचनायें अनुवादों को माध्यम से अधिक नहीं पढ़ने को मिल पाती।
अब साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद की निंदा की गयी पर कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो इस बात को समझते हैं कि आतंकवाद भले ही जाति,भाषा,क्षेत्र और धर्म के नाम झंडो तले अपना काम करता है पर वास्तव में वह एक व्यापार है। ऐसा व्यापार जिस पर भावना,श्रृंगार और अलंकार से शब्द सजाकर प्रस्तुत करना कभी कभी एकदम निरर्थक प्रक्रिया लगती है। आतंकवाद एक हाथी है जिसे साहित्यकार आंखें बंदकर पकड़ लेते हैं। कोई उसके सूंड़ को पकल लेता है तो कोई पूंछ-फिर उस पर अपनी व्याख्या करने लगता है। जिस तरह पहले किसी सुंदरी का मुखड़ा गढ़कर उसकी आंखें,नाक,कान,कमर,और बालों पर कवितायें और कहानी लिखी जाती थीं वैसे ही आतंकवाद का विषय उनके हाथ आ गया है। जिस तरह किसी सुंदरी के शारीरिक अंगों पर खूब लिख गया पर उसके व्यवहार,आचरण और ज्ञान पर कवि लिखने से बचते रहे वही हाल आतंकवाद का है। साहित्यकारों और लेखकों ने आतंकवादी घटनाओंे से हुई त्रासदी पर वीभत्स रस से सराबोर रचनायें खूब लिखीं। पाठक का दर्द खूब उबारा पर कभी इन घटनाओं के पीछे जो सौदागर हैं उसकी कल्पना किसी ने नहंी की। प्रसंगवश यहां हम मुंबई के खूंखार आतंकवादी कसाब की चर्चा करते हैं। 58 से अधिक बेकसूर लोगों का हत्यारा कसाब इंसान से कैसे राक्षस बना? क्या किसी पाकिस्तानी लेखक ने उसकी कल्पना करते हुए कोई लघुकथा या कविता लिखी। एक गरीब घर का लड़का जिसे उसका बाप आतंकवादी कैंप में यह कहकर भेजता है कि उसकी दो बहिनों की शादी के लिये पैसे मिलने के लिये यही एक रास्ता है। वह एक मामूली चोर डेढ़ से दो लाख रुपये की लालच में अपने देश के लिये योद्धा बनने को तैयार कैसे हो गया? उसमें इतनी क्रूरता कैसे आयी कि बंदूक हाथ में आते ही उसने 58 जाने बेहिचक ले ली? यही इंसान से राक्षस बना कसाब पकड़े जाने पर चूहे की तरह अपनी जान की भीख मांगने लगा। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि अब वह अपने किये पर पछता रहा है तब तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर इस राक्षसीय कृत्य के लिये प्रेरित करने वाले कौनसे कारण थे?
कसाब के पीछे जो तत्व हैं उनके सच पर कितने पाकिस्तानी या भारतीय साहित्यकार लिख पाते हैं। कसाब और उसके साथी तो साँस लेते हुए ऐसे इंसान थे जो किन्ही राक्षसों के हथियार बने गये। मुख्य अपराधी कौन हैं? मुख्य अपराधी हैं वह जो इसके लिये धन मुहैया करवा रहे हैं। यह धन देने वाले तमाम तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं और प्रशासन और जनता का ध्यान उन पर न जाये इस तरह के आतंकवाद का प्रायोजन कर रहे हैं। यह सच कितने साहित्यकार लिख पाये? कसाब तो इंसानी रूप में एक बुत है या कहें कि रोबोट है।
पाकिस्तान साहित्यकारों में क्या इतनी हिम्मत है कि वह कसाब को केंद्रीय पात्र बनाकर कोई कहानी लिख सकें? नहीं! दरअसल दक्षिण एशियों के साहित्यकार नायकों पर लिखकर समाज की वाहवाही लूटना चाहते हैं पर खलनायकों के कृत्यों में पीछे समाज की जो स्वयं की कमियां हैं उसे उबारकर लोगों के गुस्से से बचना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि नायकों की विजय के पीछे अगर समाज है तो खलनायक की क्रूरता के पीछे भी इसी समाज के ही तत्व हैं। समाज की की खामियों को छिपाकर उससे अच्छा बताने से तात्कालिक रूप से प्रशंसा मिलती है शायद यही कारण है कि लोग उससे बचने लगे हैं। भारत में हालांकि अनेक लोग समाज की कमियों की व्याख्या करते हैं पर वह भी उसके मूल में नहीं जाते बल्कि सतही तौर पर देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं। नारी स्वातंत्रय पर लिखने वाले अनेक लेखक तो हास्यास्पद रचनायें लिखते हैं और उससे यह भी पता लगता है कि उनके गहन चिंतन की कमी है।
दक्षिण एशियाई देश भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,गरीबी,अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों के कारण विश्व में पिछडे हुए हैं और इसलिये यहां लोगों में कहीं न कहीं गुस्से की भावना है। दक्षिण एशिया की छबि विश्व में कितनी खराब है यह इस बात से भी पता चलता है कि ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल ने भी उसे अपने लिये कम पाकिस्तान को अधिक संकट माना है जो कि दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है। जब हम दक्षिण एशिया की बात करते हैं तो फिर भौगोलिक सीमाओं से उठकर विचार करना चाहिये पर जैसे कि सम्मेलन की समाचार पढ़ने को मिले उससे तो नहीं लगता कि शामिल लोग ऐसा कर पाये। सच बात तो यह है कि समाज और देश को दिशा देने का काम साहित्यकार ही कर पाते हैं क्योंकि वह पुरानी सीमाओं से बाहर निकलकर रचनायें करते हैं। सभी साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाते जो पर जो करते हैं वही कालजयी रचनायें दे पाते हैं। अगर हम दक्षिण एशिया की स्थिति को देखें तो अब ऐसी कालजयी कृतियां कहां लिखी जा रही हैं जिससे समाज या देश में परिवर्तन अपेक्षित हो।
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आचरण निजी मामला है-हास्य व्यंग्य
मंदी से बाजार के ताकतवर सौदागर अधिक परेशान हो गये हैं। सभी जानते हैं कि प्रचार माध्यमों पर कही अप्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष रूप से इन्हीं अमीरों और सौदागरों का नियंत्रण हैं। मंदी जो इस दुनियां भर के अमीरों के लिये एक संकट बन गयी है उससे भारत भी बचा नहीं है क्योंकि गरीबों के लिये यह दुनियां भले ही उदार नहीं है पर उनके लिये तो पूरी धरती एक समान है। भारत में वैसे कहीं किसी प्रकार की मंदी नहीं है। खाने पीने और नहाने धोने का का सामान लगातार महंगा होता जा रहा है। जहां तक देश के आयात निर्यात संतुलन का प्रश्न है तो वह भी कभी अनुकूल नहीं रहा। भारत के सामान्यतः उत्पाद भारत में ही बिक पाते हैं और अभी भी निरंतर बिक रहे हैं। फिर यहां के अमीर क्यों हैरान हैं? बड़े अमीरों के कारखानों में बनने वाले उत्पादों के विज्ञापन पर यहां के प्रचार माध्यम जीवित हैं और इसलिये वही प्रचार माध्यम भी अब कुछ विचलित दिख रहे हैं उनको लग रहा है कि कहीं इस देश के अमीरों का मंदी का संकट दूर नहीं हुआ तो फिर उनके विज्ञापन भी गये काम से। इसलिये वह कोई ऐसा महानायक ढूंढ रहे हैं जो उससे दूर कर सके।
फिल्म,क्रिकेट और विदेशी सम्मानों से सुसज्जित महानायकों को तो अपने देश के प्रचार माध्यम खूब भुनाता है। एक बार एक व्यक्ति ने एक प्रचारक महोदय से सवाल किया कि ‘भई, आप लोग इस देश में ऐसे लोगों को नायक बनाकर क्यों प्रचारित करते हैं जिनका व्यक्तिगत आचरण दागदार हैं। अपने देश के ही ऐसे लोगों को क्यों नहीं नायक दिखाकर प्रचारित करते जो इस देश में ही छोटे छोटे शहरों में बड़े काम कर दिखाते हैं और उनका आचरण भी अच्छा होता है?
प्रचारक महोदय का जवाब था-‘आचरण निजी मामला है। हम प्रचारकों का काम नायक बनाना नहीं बल्कि नायकों को महानायक बनाना है वह भी केवल इसलिये क्योंकि उसके दम पर हमें अपने विज्ञापन का काम चलाना है। हमारे द्वारा प्रचारित विज्ञापनों का नायक है उसके लिये हम ऐसी खबरों प्रचारित करते हैं कि जिससे वह महानायक बन जाये क्योंकि उनके अभिनीत विज्ञापन भी तो हम दिखाते हैं।’
वैसे तो हमारे देश के प्रचार माध्यमों के पास फिल्म,क्रिकेट,साहित्य,कला और समाज सेवा मेें अनेक माडल हैं जो विज्ञापनों में काम करते हैं जिनके बारे में वह खबरें देते रहते हैं। बाजार के नियंत्रकों की ताकत बहुत बड़ी होती हैं। कब किसी क्रिकेट खिलाड़ी को रैंप पर नचवा दें और उससे भी काम न चले तो फिल्म में अभिनय ही करवा लें-कल ही वर्तमान टीम के एक क्रिकेट खिलाड़ी को एक लाफ्टर शो में कामेडी करवा डाली। मतलब फिल्म,समाज सेवा,साहित्य,चित्रकारी और कला में प्रचार माध्यमों ने अपना एक एजेंडा बना लिया हैं। एक फिल्मी शायर हैं वह राजनीति विषय पर भी बोलते हैं तो संगीत प्रतिस्पर्धा में निर्णायक भी बनते हैं। कभी कभी कोई हादसा हो जाये तो उस पर दुःख व्यक्त करने के लिये भी आ जाते हैं। आप पूछेंगे कि इसमें खास क्या है? जवाब में दो बातें हैं। एक तो राजनीति और संगीत में उनकी योग्यता प्रमाणित नहीं हैं दूसरा यह कि वह कम से तीन चार विज्ञापनों में आते हैं और यही कारण है उनका अनेक प्रकार की चर्चाओं में आने का।
मगर यह देशी नायक-जिनकी आम आदमी में कोई अधिक इज्जत नहीं है-इस बाजार को मंदी से उबार नहीं सकते क्योंकि वह तो उनके लिये दोहन का क्षेत्र है न कि विकास का। येनकेन प्रकरेण विज्ञापन मिलते हैं इसलिये ही वह अपना चेहरा दिखाने आ जाते हैं या कहा जाये कि बाजार प्रबंधकों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि विज्ञापन के नायक ही सर्वज्ञ के के रूप में प्रस्तुत किये जायें। मगर यह सब उत्पाद बिकवाने वाले माडल हैं न कि मंदी दूर भगानेे वाले।
कल अपने देश के प्रचार माध्यम एक ऐसे महानायक से मंदी का संकट दूर करने की अपेक्षा कर रहे थे जो इस देश का नहीं है। अमेरिका के राष्ट्रपति पर लगातार दो दिनों से देश के प्रचार माध्यम अपना दृष्टिकोण केंद्रित किये हुए थे। हैरानी है कि आखिर क्या हो गया है इस देश के बुद्धिजीवियों को। नया जमाना कहीं आया है और शोर यहां मच रहा है। कल एक सज्जन कह रहे थे कि यार, जो भी अखबार खोलता हूं या टीवी समाचार चैनल देखता हूं तो ऐसा लगता है कि अमेरिका यहीं कहीं कोई अपना प्रांत है। अरे, बरसों से अमेरिका का राष्ट्रपति चुनने के समाचार हमने देखे और सुने हैं पर इस देश के प्रचार माध्यम इतने बदहवास कभी नहीं देखे। टीवी समाचार चैनल तो ऐसे हो गये थे कि इस देश में उस समय कोई बड़ी खबर नहीं थी। समाचारों में वैसे ही उनके लाफ्टर शो,फिल्म और क्रिकेट की मनोरंजक खबरों से बने रहते हैं और ऐसे में उनके प्रसारण से ऐसा लग रहा था कि कोई नयी चीज उनके हाथ लग गयी है।’
दूसरे ने टिप्पणी की कि‘क्या करें प्रचार माध्यम भी। मंदी की वजह से उनके विज्ञापन कम होने का खतरा है और उनको लगता है कि अमेरिका का नया राष्ट्रपति शायद मंदी का दौर खत्म कर देगा इसलिये उसकी तरफ देख रहे हैं इसलिये हमें भी दिखा रहे हैं।’
लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण करते हुए ऐसा सोचा भी नहीं होगा कि बौद्धिक रूप से यह देश इतना कमजोर हो जायेगा। जहां विदेश के महानायक ही चमकते नजर आयेंगे। अमेरिका विश्व का संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र है पर अनेक विशेषज्ञ अब उसके भविष्य पर संदेह व्यक्त करते हैं। वजह इराक और अफगानिस्तान के युद्ध में वह इस तरह फंसा है कि न वह वहां रह सकता है और छोड़ सकता है। दूसरी बात यह है कि उसने कभी किसी परमाणु संपन्न राष्ट्र का मुकाबला नहीं किया ऐसे में भारतीय बुद्धिजीवी आये दिन उससे डरने वाले बयान देते हैं।
बहरहाल अमेरिका के लिये आने वाला समय बहुत संघर्षमय है और उसने जिस तरह नादान दोस्त पाले हैं उससे तो उसके लिये संकट ही बना है और उससे उबरना आसान नहीं है। अमेरिका के बारे में इतने सारे भ्रम भारतीय बुद्धिजीवियों को हैं यह अब जाकर पता चला। कई लोग तो ऐसे कह रहे हैं कि जैसे नया राष्ट्रपति उनके बचपन का मित्र है और इसलिये हमारे देश का भला कर देगा।’
सभी जानते हैं कि अमेरिका के लिये सबसे बड़े मित्र उसके हित हैं। अपने हित के लिये वह चाहे जिसे अपना मित्र बना लेता है और फिर छोड़ देता है। वहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है और उनकी अफसरशाही वैसी है जिसके बारे में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडमस्मिथ ने कहा था कि ‘लोकतंत्र में क्लर्क शासन चलाते हैं।’ याद रहे एडमस्मिथ के समय भारत वर्तमान स्वरूप में अस्तित्व में नहीं था और होता तो शायद ऐसी बात नहीं कहता। बहरहाल भारत के उन बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों को आगे निराशा होने वाली है जो नये राष्ट्रपति के प्रति आशावादी है क्योंकि वहां क्लर्क -जिसे हम विशेषज्ञ अधिकारी भी कह सकते हैं-ही अपना काम करेंगे। रहा मंदी का सवाल तो यह विश्वव्यापी मंदी अनेक कारणों से प्रभावित है और उसे संभालना अकेला अमेरिका के बूते की नहीं है। भले ही अपने देश के प्रचार माध्यम और बुद्धिजीवी कितनी भी दीवानगी प्रदर्शित करें।
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